Friday, December 21, 2007

ईद का दिन...लेकिन खुशी किस्मत के हिसाब से।

रात की ड्युटी के बाद लुटा पिटा सा अपने आशियाने की ओर अग्रसर था। रास्ते में पड़ने वाले जाफराबाद इलाके में बस पहुची तो मन प्रसन्न हो गया। चारों और खुशियां ही खुशियां दिखाई दे रही थी। सड़क पर लकदक कुरते-पायजामे में चमकते बच्चे, बुढे़ और जवान। सरगई बाटते लोग... गले मिलते लोग....सभी अपनी खुशियों में मस्त। ऐसा लग रहा था मानों पूरी दिल्ली ही जश्न में डूबी हो। घरों के सामने शादी का सा माहौल... हर कोई अपने- अपने हिसाब से अधिक खरचा करने में व्यस्त....देख कर अच्छा लगा।
लेकिन रास्ते में एक जगह ऐसी आयी कि बरबस निगाह ठहर सी गयी। कम से कम बीस बच्चे.. सभी की उम्र लगभग ५ से ७ बरस की रही होगी। कपड़े शरीर पर नाम को ही थे। मैल इतना चढ़ा था मानों नहाना शब्द तो उनके शब्दकोष में होगा ही नही। सभी जल्दी-जल्दी कुछ समेंटने की होड़ में लगे थे। लेकिन क्या? यह मेरे लिए कौतुहल का विषय लगभग ५ मिनट तक बना रहा। क्योकि उनके बीच में क्या था देख पाना मुशि्कल था। बेचैनी बढ़ी तो पुरा फोकस किया उनके पैरों के बीच थोड़ी सी खाली रह गयी जगह पर। कारण समझ में आया तो पुरे शरीर में सिरहन सी दौड़ गयी। सभी के सभी कुड़े के ढे़र से अपने दिनभर की रोटी तलाश रहे थे। कहने का मतलब है ...घर की ओर जाते हुए रास्ते में एक ऐसी जगह पड़ती है जहां बस अगर रुक गयी तो बस में सवार सभी लोग अपनी नांक-मुंह कस कर दबोच लेते है। कारण? संड़ाध। वह जगह कसाईखाने से निकले गंद..यानि काटे गये जानवरों की आतंड़ियां फैकने की जगह। और उस नरक में वो बच्चे ईद की खुशियां ढुढ़ रहे थे। कुछ को दो-चार बोटी हाथ लग गयी तो मानो पुरी दुनिया भर की खुशियां उनकी झोली में आ गिरी हो। जिनकें हाथ कुछ नही लगा उनकी उदासी देखकर सहन शक्ति, भावनाओं का सैलाब जवाब दे रहा था।
राष्टपति जी ने प्रधानमंतरी जी , सोनिया जी। सभी ने देश भर को ईद की शुभकामनाए दी। लेकिन उन बच्चों को इनकी बधाई से क्या लेना देना। बधाईयों से उनका पेट नही भरने वाला। उन्हें खुशियां नही मिलने वाली। इस देश के रहनुमा गर कर सके तो इतना इंतजाम कर दे कि हर गरीब को पेट भर रोटी, रहने के लिए छत, और तन को ढंकने के लिए कपड़ा मिल जाए, खुशियों के मौकों पर जरुरत भर पुरी हो जाए। केवल इतना कर दे।